चोटी की पकड़–73

खुलकर खज़ानची ने कहा, "अच्छी बात है," फिर पूछा, "रुपए रानी साहिबा के पास पहुँच गए?"


"उसी वक्त," स्वर को मुलायम करके मुन्ना ने कहा, "नहीं तो रखे कहाँ जाएंगे?"

"बिल बनाकर अकोंटेंट के पास भेजने के लिए क्या रानी साहिबा ने हुक्म दिया है?"

"हमसे सवाल करने के क्या मानी? हम जैसा सुनते हैं, वैसा कहते हैं।"

"अच्छा तो उसी तरह बिल भेज देंगे।" खजानची को अँधेरा दिखा। वह रास्ता काटकर चले।

मुन्ना को जान पड़ा, कुछ बिगड़ गया। कुछ अप्रतिभ हुई। मगर फिर चेतन होकर कहा, "आप इतना नहीं समझते जब लोहे के संदूक से नोट गायब हो सकते हैं, तब बाकी कार्रवाई भी हो सकती है।"

"कैसे?"

जैसे आपसे कुंजी ली गई।"

"वैसे ही मेमो पर राजा के दस्तखत करा लिए जाएंगे और पाँच लाख रुपए के एक खर्च पर?"

"जहाँ पाँच लाख की चोरी होती है, वहाँ एक लाख की कम-से-कम रिश्वत होगी, और इस रक़म से काम न हो, ऐसा काम अभी संसार में नहीं रचा गया।"

"यह तो हम समझे, लेकिन मेमो पर राजा के दस्तखत कैसे होंगे?"

"मेमो क्या है?"

"जिस पर बिल के रुपए लिखे जाते हैं।"

"राजा की सही हो जाने पर ये रुपए दर्ज कर दिए जाएंगे।"

खजानची खुश हो गए। कहा, "हाँ, ऐसा हो सकता है लेकिन वहाँ भी लगाव होगा।"

"राज्य रानी का भी है, लगाव सबसे है, जो उनका काम करेंगे, उन पर वे मिहरबान रहेंगी।"

"अच्छी बात है; अब कुल कार्रवाई कर ली जाएगी, लेकिन एकाउंटेंट समझ जाएंगे।"

"कौन समझेगा, कौन नहीं, इसकी चिंता व्यर्थ है।"

"यह भी ठीक। हमें क्या मालूम, कौन-कौन नेक नज़र पर हैं।"

मुन्ना ख़ज़ानची की नुकीली दाढ़ी देखती रही। खजानची ने खुश होकर रास्ता पकड़ा।


बीस

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